कश्मीर में चुनाव और सही फैसले का वक्त
विधानसभा चुनावों के बाद की राजनीति में जम्मू-कश्मीर पर बार-बार ध्यान जाता है। क्या वहां भी ऐसे ही चुनाव होंगे, जैसे बंगाल में हो रहे हैं? साम दाम दंड भेद सबका उपयोग करते हुए! लगता तो नहीं है केन्द्र सरकार जम्मू कश्मीर में ऐसी गलती करेगी। उसे मालूम है कि वहां ऐसा गलती का मतलब बहुत गंभीर है और फायदा किसी को नहीं सिर्फ पाकिस्तान का होगा। जिसकी ताक में वह बैठा हुआ है। कश्मीर में उसके पास अब कोई पत्ते नहीं हैं, सिवाय इसके कि वह हमारी किसी बड़ी गलती का इंतजार करे।
पाकिस्तान धीरे धीरे भारत की तरफ शांति के रास्ते पर बढ़ रहा है। इस बात का कोई ज्यादा महत्व नहीं है कि उसने किसी व्यापारिक समझौते की तरफ हाथ बढ़ाए और फिर वापस खींच लिए। ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि वह अब धारा 370 की बहाली पर जोर नहीं दे रहा है। यूएन के रायशुमारी वाले प्रस्ताव की बात करके अंतरराष्ट्रीय समुदाय को नहीं उकसा रहा है। इसके आंतरिक और बाहरी दोनों कारण हैं। आंतरिक कारणों में प्रमुख इमरान सरकार की डांवाडोल राजनीतिक स्थिति है तो बाहरी में चीन और अमेरिका द्वारा कश्मीर मामले में पाकिस्तान की मदद न करने के स्पष्ट संकेत देना है।
इन्हीं कारणों की वजह से पिछले दिनों पाकिस्तान के आर्मी चीफ जनरल कमर अहमद बाजवा ने कहा था कि
दोनों देशों को अतीत के कड़वे अनुभवों को भूलाकर आगे बढ़ने की जरूरत है। बाजवा के इस बयान से पहले पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने भी दोनों देशों के बीच शांति की बात कही थी। मगर आर्मी चीफ का बयान इसलिए ज्यादा महत्वपूर्ण है कि कश्मीर नीति में वहां की सेना का ही सबसे ज्यादा दखल रहता है। इसलिए जनरल बाजवा ने क्या कहा इसे हमारे यहां ध्यान से सुना गया। लेकिन उन्होंने क्या नहीं कहा इसे हमारे कुटनीति के विशेषज्ञ और ज्यादा ध्यान से समझने की कोशिश कर रहे हैं।
कश्मीर में 5 अगस्त 2019 से पहले की स्थिति की वापसी पर जोर न देना एक बड़ा नीतिगत शिफ्ट है। क्योंकि
यह और यूएन प्रस्ताव ही दो चीजें ऐसी हैं जिन्हें पाकिस्तान अन्तरराष्ट्रीय बाजार में भुना सकता था। मगर दोनों का जिक्र न करना यह बताता है कि ये दोनों मुद्दे अब कमजोर पड़ रहे हैं। धारा 370 की वापसी का
सवाल अब कश्मीर के नेता भी नहीं उठा रहे हैं। और यूएन प्रस्ताव तो कभी कश्मीर के नेताओं ने उठाया ही नहीं। चाहे फारुक अब्दुल्ला हों या मुफ्ती मोहम्मद सईद हर जगह ये जोर देकर कहते रहे हैं कि भारत में जम्मू कश्मीर का विलय अंतिम है। इस पर कोई बात नहीं हो सकती।
तो कश्मीर के चुनाव की बिसात बिछने से पहले यह केन्द्र सरकार के लिए अनुकूल स्थिति है। लेकिन बस यहीं वह शंका पैदा होती है कि कहीं भाजपा वहां सरकार बनाने की जल्दबाजी में बंगाल जैसा हाई प्रोफाइल खेला न कर दे। भाजपा ने राज्य में जम्मू का मुख्यमंत्री मुहिम शुरू कर दी है। इसमें कोई बुराई नहीं है। उसे दो अवसर ऐसे मिले थे जब वह इस दिशा में आगे बढ़ सकती थी। मगर न मुफ्ती के साथ मिलकर सरकार बनाते समय और न ही उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती के साथ सरकार बनाते समय भाजपा ने इस तरह का कोई मोलभाव किया। शायद इसका एक कारण यह भी था कि उस समय इसके पास जम्मू से कोई मुख्यमंत्री पद का उपयुक्त उम्मीदवार भी नहीं था। मगर अब मोदी सरकार में मंत्री डा जितेन्द्र सिंह की स्वीकार्यता जैसे जैसे पूरे राज्य में बढ़ती जा रही है वैसे वैसे ही जम्मू में मुख्यमंत्री यहां का हो कि मांग बढ़ती जा रही है।
लेकिन मांग होना और पूरे राज्य की आशा आकांक्षाओं के अनुरूप सरकार गठन दोनों को साधना बड़ी गहरी राजनीतिक समझ और उदार रवैये की मांग करता है। वहां बिहार जैसी सरकार बना लेना और बंगाल जैसी कोशिशें करना घड़ी की सुई को उलटा घुमा देना होगा। 1987 में यह हो चुका है। राजीव फारूक अकार्ड के बाद 1987 में हुए जम्मू कश्मीर के विधानसभा चुनाव राज्य के इतिहास के सबसे धांधली भरे चुनावों के रूप में याद किए जाते हैं। राज्य में आतंकवाद की शुरूआत भी तभी से हुई थी। उन चुनावों में जीत हार के फैसले मतपेटियों
से निकले वोटों से नहीं कलेक्टर (चुनाव अधिकारी) की कलम से हुए थे। बाद में आतंकवादी बने कई युवा इन चुनावों में बड़े उत्साह से शामिल हुए थे। मगर उनका जबर्दस्त मोहभंग हुआ।
आज कश्मीर का सबसे मोस्ट वांटेड आतंकवादी और हिजबुल मुजाहिदीन का चीफ सैयद सलाहुद्दीन है। मगर कम लोग जानते हैं कि सलाहुद्दीन 1987 में अपने असली नाम यूसुफ शाह के नाम से विधानसभा चुनाव लड़ा था। आज जिसकी क्लानशकोव लिए हुए पचासों तस्वीरें इंटरनेट पर तैर रही हैं। वह 87 में कलम और दवात के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ा था। लेकिन अकेला वही नहीं नेशनल कांफ्रेस और कांग्रेस के गठजोड़ के खिलाफ चुनाव लड़े मुसलिम युनाइटेड फ्रंट (मफ) के लगभग सभी उम्मीदवारों को चुनाव में हारा हुआ घोषित कर दिया गया था।
एक हफ्ते तक चुनाव नतीजे लटकाए जाते रहे और फिर 89 सदस्यीय विधानसभा में एनसी और कांग्रेस के 66 सदस्यों को चुनाव जीता हुआ घोषित कर दिया गया। मफ जिसकी जनसभाओं में भारी भीड़ आ रही थी केवल 4 सीटों पर विजयी बताई गई। उस चुनाव में एक और युवा बहुत उत्साह से शामिल था। बाद में वह भी बड़ा आतंकवादी बना। वह यासीन मलिक था। जिसने जेकेएलएफ बनाकर सबसे पहले आतंकवादी घटनाएं कीं। वह कश्मीर का टर्निंग पांइट था। पाकिस्तान को मौका मिल गया। बांग्लादेश गंवा देने के बाद 1971 से ही पाक ऐसे ही किसी मौके के इंतजार में बैठा था। 1987 में फारूक को फिर से मुख्यमंत्री बनाने के लिए केन्द्र का यह कदम कांग्रेस को कितना महंगा पड़ा यह तो अलग बात है मगर देश को और कश्मीर को बहुत महंगा पड़ा। इससे पहले कांग्रेस के सहयोग से ही फारूक के बहनोई गुलशाह मुख्यमंत्री बने हुए थे। जिनकी सरकार गिरा कर कांग्रेस ने 1987 के चुनाव करवाए।
कुछ हद तक आज भी स्थितियां वैसी ही हैं। केन्द्र की मोदी सरकार ने भाजपा की मदद से बनी महबूबा मुफ्ती की सरकार गिरा दी है। नए चुनाव की तैयारी है। भाजपा ने अपने सारे विकल्प खुले रखे हुए हैं। कांग्रेस के गुलामनबी आजाद से लेकर फारूक अब्दुल्ला तक उसने फिलर भेज रखे हैं। राज्यसभा में आजाद के साथ सहानूभुति जताकर रोने के बाद उन्होंने फारूक के कोरोना संक्रमित हो जाने पर तत्काल ट्वीट किया। और उधर से भी उतनी ही गर्मजोशी के साथ उमर अब्दुल्ला ने जवाब दिया।
प्रधानमंत्री मोदी कश्मीर में बहुत स्मार्टली खेल रहे हैं। अगर वे वहां जल्दी ही होने वाले चुनावों को ठीक से हेंडल कर सके तो जम्मू कश्मीर शांति और समस्या के समाधान की दिशा में एक बड़े कदम की तरफ बढ़ जाएगा। लेकिन 1987 वाली गलती अगर दोहराई गई तो हालात फिर खराब हो सकते हैं।
प्रधानमंत्री मोदी को अपने दो पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों के कश्मीर पर उठाए गए कदमों को याद रखना होगा। 2002 में प्रधानमंत्री वाजपेयी ने स्पष्ट निर्देश दिए थे कि चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष होना चाहिए। और वह हुए भी। पूरी दुनिया में और कश्मीर में इन चुनावों को सराहा गया। इसी के बाद कश्मीर में अमन की वापसी की गति तेज हुई। उसी तरह 2008 के चुनाव के समय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि कौन हारता है, कौन जीतता है यह महत्वपूर्ण नहीं है। देश को और कश्मीर को जीतना चाहिए! यह हुआ भी एक युवा उमर अब्दुल्ला मुख्यमंत्री बने। यह अलग बात है कि उन्होंने भी अपने पिता फारूक के 1996 से 2002 तक के शासन की तरह 2008 से 14 तक का समय केवल अपने लोगों को फायदा पहुंचाने में गंवाया। पिता पुत्र दोनों के 12 साल के
शासन काल में आतंकवाद से पीड़ित कश्मीरियों को कोई राहत नहीं मिली।
खैर प्रधानमंत्री मोदी के पास अब सारे विकल्प हैं। लेकिन इनमें एक सबसे महान और इतिहास में हमेशा के लिए ऊंचा मुकाम बनाने वाला है। वह है जम्मू कश्मीर में सबको साथ लेकर चलते हुए ऐसा रास्ता बनाना जो शांति और समस्या के समाधान की तरफ जाता हो। माहौल इसके लिए पूरी तरह अनुकूल है। बस कश्मीर
में सही आदमियों को सही दिशा में लगाना होगा!